BABA SAHAB Dr. Bhim Rav Ambedkar ke vichar | बाबा साहब डॉ भीम राव अंबेडकर के विचार

 बाबा साहब डॉ भीम राव अंबेडकर के विचार 



बाबा साहब के विचार आपकी लाइफ बदल देंगे और आपके सोचने के नजरिए को भी बदल देंगे। 

  1. व्यक्तिगत स्तर पर मैं यह स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि मैं नहीं मानता की इस देश में किसी विशेष संस्कृत के लिए कोई जगह है, चाहे वो हिन्दू संस्कृति हो, या मुस्लिम संस्कृति, या कन्नड संस्कृति, या गुजराती संस्कृति। ये ऐसी चीजें है जिन्हे हम नकार नहीं सकते, पर उनको वरदान नहीं मानना चाहिए, बल्कि अभिशाप कि तरह मानना चाहिए, जो हमरी निष्टा को डिगाती है, और हमें अपने लक्ष्य से दूर ले जाति है। यह लक्ष्य है, एक ऐसी भावना को विकसित  करना की हम सब भारतीय है।
  2. यदि व्यक्ति का प्रेम तथा घृणा प्रबल नहीं है, तो वह यह आशा नहीं कर सकता कि वह अपने युग पर कोई प्रभाव छोड़ सकेगा और ऐसी सहायता प्रदान कर सकेगा, जो महान सिद्धांतों तथा संघर्ष की अपेक्षा लक्ष्यों के लिए उचित हो। मैं  अन्याय, अत्याचार, आडंबर तथा अनर्थ से घृणा करता हूँ और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें अपनाते हैं। वे दोषी हैं। मैं अपने आलोचकों को यह बताना चाहता हूँ कि मैं अपने इन भावों को वास्तविक बल व शक्ति मानता हूँ। वे केवल उस प्रेम की अभिव्यक्ति हैं, जो मैं उन लक्ष्यों व उद्देश्यों के लिए प्रकट करता जिनके प्रति मेरा विश्वास है।
  3. राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अंतर भुलाकर उनमें सामाजिक-भ्रातृत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए।
  4. कार्य करने की वास्तविक स्वतंत्राता केवल वहीं पर होती है, जहां शोषण का समूल नाश कर दिया गया है, जहां एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किया जाता, जहां बेरोजगारी नहीं है, जहां गरीबी नहीं है, जहां किसी व्यक्ति को अपने धंधे के हाथ से निकल जाने का भय नहीं है, अपने कार्यों के परिणामस्वरूप जहां व्यक्ति अपने धंधे की हानि, घर की हानि तथा रोजी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।
  5. यह कहा जा सकता है कि हिंदुओं की धर्मिक पुस्तकों के प्रति मैंने वह आदर प्रकट नहीं किया है, जो धर्मिक पुस्तकों के प्रति होना चाहिए। धर्मिक पुस्तकों के प्रति श्रद्धा कराई नहीं जा सकती। यह श्रद्धा तो सामाजिक स्थितियों से स्वयं उत्पन्न होती है अथवा हटती है। धर्म ग्रंथों के प्रति ब्रह्मणों की श्रद्धा तो स्वाभाविक है, परन्तु गैर ब्राह्मणों के लिए यह अस्वाभाविक है। यह भेदभाव सरलता से समझा जा सकता है।
  6. जिस समाज में कुछ वर्गों के लोग जो कुछ चाहें वह सब कुछ कर सकें और बाकी वह सब भी न कर सकें जो उन्हें करना चाहिए, उस समाज के अपने गुण होते होंगे, लेकिन इनमें स्वतंत्रता शामिल नहीं होगी। अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना अधिक उचित होगा।
  7. जो कुछ मैं कर पाया हूं वह जीवन-भर मुसीबतें सहन करके विरोधियों से टक्कर लेने के बाद ही कर पाया हूं। जिस कारवां को आप यहां देख रहे हैं, उसे मैं अनेक कठिनाइयों से यहां ले आ पाया हूं। अनेक अवरोध, जो इसके मार्ग में आ सकते हैं, के बावजूद इस कारवां को बढ़ते रहना है। अगर मेरे अनुयायी इसे आगे ले जाने में असमर्थ रहे तो उन्हें इसे यहीं पर छोड़ देना चाहिए, जहां पर यह अब है। पर किन्हीं भी परिस्थितियों में इसे पीछे नहीं हटने देना है। मेरी जनता के लिए मेरा यही संदेश है।
  8. सनातन धर्मार्थ हिंदू के लिए यह बुद्धि से बाहर की बात है कि छुआछूत में कोई दोष है। उसके लिए यह सामान्य और स्वाभाविक बात है। वह इसके लिए किसी प्रकार के पश्चाताप और स्पष्टीकरण की मांग नहीं करता। आधुनिक हिंदू छुआछूत को कलंक तो समझता है लेकिन संघ के सामने चर्चा करने में उसे लज्जा आती है। शायद इससे कि हिंदू सभ्यता विदेशियों के सामने बदनाम हो जाएगी कि इसमें दोषपूर्ण एवं कलंकित प्रणाली या संहिता है जिसकी साक्षी छुआछूत है।
  9. मैं अन्याय, अत्याचार, आडंबर तथा अनर्थ से घृणा करता हूं और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें अपनाते हैं। वे दोषी हैं। मैं अपने आलोचकों को यह बताना चाहता हूं कि मैं अपने इन भावों को अपना वास्तविक बल व शक्ति मानता हूं।
  10. हिन्दू सोसायटी उस बहुमंजिली मीनार की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई सीढ़ी है न दरवाजा। जो जिस मंजिल में पैदा हो जाता है उसे उसी मंजिल में मरना होता है।
  11. दलित युवाओं को मेरा यह पैगाम है कि एक तो वे शिक्षा और बुद्धि में किसी से कम न रहें, दूसरे ऐशो-आराम में न पड़कर समाज नेतृत्व करें। तीसरे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी संभालें तथा समाज को जागृत और संगठित कर उसकी सच्ची सेवा करें।
  12. कार्य करने की वास्तविक स्वतंत्रता केवल वहीं पर होती है, जहां शोषण का समूल नाश कर दिया जाता है, जहां एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किया जाता, जहां बेरोजगारी नहीं है, जहां गरीबी नहीं है, जहां किसी व्यक्ति को अपने धंधे के हाथ से निकल जाने का भय नहीं है, अपने कार्यों के परिणामस्वरूप जहां व्यक्ति अपने धंधे की हानि, घर की हानि तथ रोजी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।
  13. जिस समाज में कुछ वर्गों के लोग जो कुछ चाहें वह सब कुछ कर सकें और बाकी वह सब भी न कर सकें जो उन्हें करना चाहिए, उस समाज के अपने गुण होते होंगे, लेकिन इनमें स्वतंत्रता शामिल नहीं होगी। अगर इंसानों के अनुरूप जीने की सुविधा कुछ लोगों तक ही सीमित है, तब जिस सुविधा को आमतौर पर स्वतंत्रता कहा जाता है, उसे विशेषाधिकार कहना अधिक उचित होगा।



      Note :- ये सभी कथन भारत रत्न ज्ञान के प्रतीक बाबा साहब डॉ भीम राव अंबेडकर के विभिन्न साहित्य व भाषणों (बाबा साहब सम्पूर्ण  वाङ्मय) से लिए गए।



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