श्रम विभाजन और
जाति-प्रथा
यह विडम्बना की बात है कि आधुनिक युग में भी जात-पांत के पक्ष में दलीलें पेश करने वालों की कमी नहीं है। इसके समर्थक कई आधारों पर इसका समर्थन करते है। इनका कहना है कि जाति-प्रथा केवल मेहनत के विभाजन का दूसरा नाम है।यह भी दलील दी जाती है कि श्रम का विभाजन हर एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है तो जाति प्रथा में भी कोई बुरी बात नहीं है। इस दृष्टिकोण का जोरदार विरोध करने के लिए पहली बात यह है कि जाति प्रथा केवल श्रम का विभाजन (division of labour) ही नहीं है बल्कि यह श्रम करने वाले श्रमिकों का विभाजन (division of labourers) है। यह सही है कि आधुनिक सभ्य समाज में श्रम विभाजन की जरूरत है लेकिन किसी भी सभ्य समाज में मेहनत के विभाजन के साथ अलग-अलग वर्गो में मेहनत करने वालों का गैर-कुदरती (unnatural division) विभाजन नहीं होता। भारत की जाति प्रथा में केवल मेहनत के विभाजन से बिल्कुल अलग तरह का मेहनत करने वालों का विभाजन ही नहीं है बल्कि यह विभाजित विभिन्न वर्गो को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊंच-नीच की भावना पैदा करती है जो दुनिया के किसी भी समाज में नहीं पाई जाती है। किसी अन्य देश में मेहनत के साथ-साथ मेहनतकशों में इस प्रकार का क्रम या विभाजन नहीं है।
जाति
प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान लिया जाए तो यह स्वभाविक (spontaneous)
व अपनी इच्छा से विभाजन नहीं है क्योंकि यह व्यक्ति की रूचि पर
आधारित नहीं है, कुदरती लगाव तथा काबिलियत पर भी आधारित नहीं
है। किसी समाज में सामाजिक व व्यक्तिगत कुशलता के लिए यह जरूरी है कि किसी भी
व्यक्ति की योग्यता को व समता को इस सीमा तक विकसित किया जाए कि वह अपना पेशा खुद
चुनने और उसको रोजगार के रूप में धारण करने के योग्य बना दिया जाए। जाति प्रथा में
इस नियम को तोड़ दिया गया है क्योंकि इस प्रथा में हर व्यक्ति के लिए पेशा जन्म के
पहले से ही तय कर दिया जाता है। इसमें ट्रेनिंग या माहौल द्वारा प्राप्त की गई
कुदरती योग्यता व कुशलता के आधार पर नहीं बल्कि माता-पिता के सामाजिक दर्जे के
आधार पर पेशों का निर्धारण किया जाता है।
जाति
प्रथा किसी व्यक्ति के पेशे का दोषपूर्ण जन्म से पूर्व निर्धारण ही नहीं करती
बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक ही पेशे से बांध देती है और व्यक्ति के चाहने
के बाद भी पेशा बदलने की आजादी नहीं होती है। ऐसी आजादी के लिए उसके लिए अपने आप
को मदद की परिस्थितियों के अनुसार ढालना और रोजगार हासिल करना असंभव होगा। जाति
प्रथा हिंदुओं को ऐसे धंधे अपनाने की आज्ञा नहीं देता जो उन्हें विरासत (heredity)
में नहीं मिले लेकिन बदली परिस्थितियों में वे करना चाहते है। यदि
एक हिंदू जिसकी जाति के लिए निर्धारित धंधा है, उससे हटकर
अन्य धंधा नहीं कर सकता, भले ही वह धन की कमी के कारण भूखा
मर जाए। जातिगत धंधों से अलग धंधों की आज्ञा न मिलने के कारण ही देश में बेरोजगारी
की समस्या विकराल हो जाती है।
जाति
प्रथा श्रम के विभाजन के रूप में एक गंभीर दोष भी है। जाति प्रथा द्वारा उत्पन्न
मेहनत का विभाजन व्यक्ति की इच्छा पर आधारित विभाजन नहीं है। व्यक्ति की भावना और
रूचि का इसमें कोई स्थान नहीं है। 'सब कुछ पहले से ही
तय' का सिद्धांत (dogma of predestination) ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या
नहीं है जितनी यह कि बहुत से लोग जाति प्रथा के कारण निर्धारित कार्य को अरूचि के
साथ केवल मजबूरी के कारण करते है। वे उन पेशों के प्रति कोई रूचि नहीं (ill
will) रखते है। ऐसा धंधा कर्मचारियों में लगातार कामचोरी, उबाऊपन व घृणा (aversion) की भावना पैदा करता है।
भारत में ऐसे कई व्यवसाय या उद्योग है जिन्हें हिंदू धर्म घृणित या हेय (degraded
) मानता है। इसलिए जो लोग ऐसे व्यवसायों में काम करते है वे उनसे
पीछा छुड़ाने के लिय हर पर तैयार रहते हैं और ऐसे हेय व्यवसाय से भागना चाहता है। ऐसी
स्थिति में, जहा काम करने वालों का न मन लगता हो, न दिमाग, भला ऐसे माहौल में कुशलता
व योग्यता कैसे प्राप्त की जा सकती है? इसलिए एक आर्थिक व्यवस्था के रूप में जाति प्रथा
बहुत हानिकारक प्रथा हैं। क्योंकि यह व्यक्ति की स्वाभाविक रुचि और मन की इच्छाओं को
दबा कर उन्हें सामाजिक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है
(From Dr BR Ambedakr’s “Annihilation of
Caste”)
