जाति प्रथा सामाजिक बिखराव व बुझदिली का बड़ा कारण है


जाति प्रथा सामाजिक बिखराव व बुझदिली का बड़ा कारण है।:-

जिन कारणों से हिंदुयों में शुद्धि का आंदोलन संभव नहीं है वही कारण हिंदुयों में संगठन की भावना पैदा नहीं होने के लिए जिम्मेदार है। संगठन का मूलाधार व भाव यह है कि हिंदुयों के दिमाग से उस भय या कायरता (Timidity And Cowardness) को निकालना है जो बहुत बुरी तरह से हिन्दुयों को सिख व मुसलमानों से अलग करती है जसके कारण हिन्दुयों को अपनी रक्षा के लिए वीरता के स्थान पर विश्वासघात और चालाकी जैसी घटिया हरकतों के लिए मजबूर कर दिया गया है। स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि सिख या मुसलमानों में वह शक्ति व क्षमता कहा से आती है जी उनको बहादुर और निडर बनाती है? मेरा मानना है कि बेहतर शारीरिक शक्ति, पौष्टिक भोजन या व्यायाम कस कारण नहीं होता है। वह शक्ति उस भावना के कारण होती है कि एक सिख को खतरे में देखकर सभी सिख उसकी मदद के लिए पहुँच जाएंगे और किसी मुसलमान पर हमला होने की दशा में सारे मुसलमान उसकी रक्षा के लिए दौड़ पड़ेंगे। लेकिन किसी भी हिन्दू के अंदर यह भावना नहीं होती है। हिंदुओं को यह विश्वास ही नहीं होता कि मुस्किल के समय दूसरा हिन्दू उसकी मदद के लिए आगे आएगा। हमेशा अकेलापन महसूस करने की नियति के कारण वह निर्बल (Powerless) ही रहता है। परिमाण स्वरूप असुरक्षा, भय और कायरता से ग्रसित हिन्दू या तो मैदान छोड़कर भाग जाता है या फिर आत्मसमर्पण कर देता हैं जबकि ऐसे संकट के समय एक सिख या मुसलमान निडर होकर डटा रहता हैं, क्योंकि वह जानता है कि हालांकि वह अकेला है लेकिन लड़ाई में वह अकेला नहीं रहेगा। उसके सिख या मुसलमान होने के आत्मविश्वास के सहारे वह मैदान में मुकाबला करने के लिए डट रहता हैं। जबकि हिन्दू में विश्वास न होने के कारण उसे भागने व हार मानने पर मजबूर कर देती है।

     इस मुद्दे पर विचार करने पर सवाल उठता है कि आखिर वह क्या चीज है जिसके कारण एक सिख या मुसलमान इतना अधिक आश्वस्त (assured) रहता है और उसे मुकाबला करने के लिए हिम्मत आती है। जबकि एक दूसरे की सहायता की भावना की कमी के कारण हिंदू भय  निराशा (dispair) से भर जाता है। आपको मालूम होगा कि इस फर्क का कारण उनके संगठित जीवन के ढंगों में है। सिखों और मुसलमानों के संगठित जीवन के ढंग से उनमें भाईचारे (fellow feeling) की भावना का विकास होता है जबकि हिंदुओं के बीच ऐसा नहीं है। सिख और मुसलमानों में एक जैसी सामाजिक मजबूती है जो उन्हें भाई-भाई बनाती है। हिंदुओं के बीच आपस में सीमेंट जैसा जोड़ने वाला तत्व नहीं है और एक हिंदू दूसरे को भाई नहीं मानता। इससे स्पष्ट हो जाता है कि क्यों एक सिख यह कहता है और महसूस करता है कि एक सिख या खालसा सवा लोगों के बराबर है। इससे पता चलता है कि क्यों एक अकेला मुसलमान हिंदुओं की भीड़ के बराबर है। इसमें कोई शक नहीं कि यह बड़ा फर्क सिर्फ जाति के कारण है इसलिए जब तक जाति रहेगीहिंदुओं में संगठन  एकता नहीं हो सकती और जब तक संगठन नहीं हैहिंन्दू कमजोरदब्बू और डरपोक (weakand meek) ही बने रहेंगे।

  हिंदू बार-बार यह दावा करते है कि वे बहुत सहिष्णु यानी सहनशील लोग है। मेरी राय में यह उनकी एक बड़ी भूल  भ्रम है। ज्यादातर अवसरों पर हिंदू सहिष्णु नहीं होते है और यदि कुछ अवसरों पर वह सहनशील होते तो इसलिए कि वे इतने निर्बल कमजोर होते है कि विरोध कर ही नहीं पाते है या उन्हें विराध से कोई लेना-देना ही नहीं होता हैबिल्कुल उदासीन होते है। यह कमजोरी  उदासीनता (indifference) हिंदुओं के जीवन का इतना बड़ा हिस्सा बन गई है कि हिंदू अपमान और अन्याय को चुपचाप बुझदिली से सहन कर लेता है। हिंदू समाज मेंमोरिस के शब्दों में, 'जहां बड़े लोग छोटों को कुचल देता हैजहां ताकतवर लोग कमजोर को पीटता हैजहां क्रूर (cruel) लोग बखौफ होकर घुमते है जहां दयालु (kind) लोग हिम्मत नहीं होने के कारण चुप है और बुद्धिजीवी वर्ग लापरवाह (caring not) होते है।हिंदू देवता भी धैर्यवान  सहनशील हैं। इन सहनशील हिंदू देवताओं के कारण हिंदू समाज में दलितों और पीड़ितों की दयनीय दशा की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। उदासीनता किसी भी समाज को बीमार करने वाला सबसे खतरनाक रोग है। आखिर हिंदू इतने उदासीन क्यों हैमेरे विचार में यह उदासीनता जाति व्यवस्था का परिणाम है जिसके कारण संगठन और आपसी मेल-मिलाप तथा किसी अच्छे उद्देश्य के लिए सहयोग भी संभव नहीं हो पाता है।

                             (From Dr BR Ambedakr’s “Annihilation of Caste”)

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